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नमस्ते मैं तरूण , पिछले आर्टिकल में मैंने आप से वास्तविक भगवान के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे थे।उन में से पहले प्रश्न का उत्तर अधूरा रह गया था मै आज उसे पूरा करने के लिए यह ब्लॉग लिख रहा हूं।


पवित्र गीता जी बोलने वाला ब्रह्म ( काल ) श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके कह रहा है कि अर्जुन में बढ़ा हुआ काल हूँ और सर्व को खाने के लिए आया हूँ । ( गीता अध्याय 11 का श्लोक नं . 32 ) यह मेरा वास्तविक रूप है , इसको तेरे अतिरिक्त न तो कोई पहले देख सका तथा न कोई आगे देख सकता है अर्थात वेदों में वर्णित यज्ञ - जप - तप तथा ओउम् नाम आदि की विधि से मेरे इस वास्तविक स्वरूप के दर्शन नहीं हो सकते । ( गीता अध्याय 11 श्लोक नं 48 ) मैं कृष्ण नहीं  हूं, ये मूर्ख  लोग कृष्ण रूप में रूप में मुझ अव्यक्त को व्यक्त ( मनुष्य रूप ) मान रहे हैं । क्योंकि ये मेरे घटिया नियम से अपरिचित हैं कि मैं कभी वास्तविक इस काल रूप में सबके सामने नहीं आता । अपनी योग माया से छुपा रहता हूँ ( गीता अध्याय 7 श्लोक नं . 24 - 25 ) विचार करें : - अपने छुपे रहने वाले विधान को स्वयं अश्रेष्ठ ( अनुत्तम ) क्यों कह रहे हैं ? । यदि पिता अपनी सन्तान को भी दर्शन नहीं देता तो उसमें कोई त्रुटि है जिस कारण से छुपा है तथा सुविधाएं भी प्रदान कर रहा है । काल ( ब्रह्म ) को शापवश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों का आहार करना पड़ता है तथा 25 प्रतिशत प्रतिदिन जो ज्यादा उत्पन्न होते हैं उन्हें ठिकाने लगाने के लिए तथा कर्म भोग का  दण्ड देने के लिए चौरासी लाख योनियों की रचना की हुई है । यदि सबके सामने बैठ कर किसी की पुत्री , किसी की पत्नी , किसी के पुत्र , माता - पिता को खाए तो सर्व को ब्रह्म से घृणा हो जाए तथा जब भी कभी पूर्ण परमात्मा कविरग्नि ( कबीर परमेश्वर ) स्वयं आए या अपना कोई संदेशवाहक ( दूत ) भेजे तो सर्व प्राणी  सत्यभक्ति करके काल के जाल से निकल जाएं । इसलिए धोखा देकर रखता है  तथा पवित्र गीता अध्याय 7 श्लोक 18 , 24 , 25 में अपनी साधना से होने वाली मुक्ति गति ) को भी ( अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ कहा है तथा अपने विधान ( नियम ) को भी ( अनुत्तम ) अश्रेष्ठ कहा है । प्रत्येक ब्रह्मण्ड में बने ब्रह्मलोक में एक महास्वर्ग बनाया है । महास्‍वर्ग में एक स्थान पर नकली सतलोक - नकली अलख लोक - नकली अगम लोक तथा नकली अनामी लोक की रचना प्राणियों को धोखा देने के लिए प्रकृति (दुर्गा / आदि माया )द्वारा करवा रखी है । कबीर साहेब का एक शब्द है ‘ कर नैनों दीदार महल में प्यारा है ' में वाणी है कि ' काया भेद किया निरवारा , यह सब रचना पिण्ड मंझारा है । माया अविगत जाल पसारा , सो कारीगर भारा है । आदि माया किन्ही चतुराई , झूठी बाजी  पिण्ड दिखाई , अविगत रचना रचि अण्ड माहि वाका प्रतिदिम्ब डारा है । ' एक ब्रह्मण्ड में अन्य लोकों की भी रचना है , जैसे श्री ब्रह्मा जी का लोक , श्री विष्णु  जी का लोक , श्री शिव जी का लोक |जहाँ पर बैठकर तीनों प्रभु नीचे के तीन लाकों ( स्वर्गलोक अर्थात् इन्द्र का लोक - पृथ्वी लोक तथा पाताल लोक) पर एक - एक विभाग के मालिक बन कर प्रभुता करते हैं तथा अपने पिता काल के खाने के लिए  प्राणियों की उत्पत्ति , स्थिति तथा संहार का कार्यभार संभालते हैं । तीनों प्रभुओं की भी जुन्म व मृत्यु होती है । तब काल इन्हें भी खाता है । इसी ब्रह्मण्ड ( इसे अण्ड भी कहते हैं क्योंकि ब्रह्मण्ड की बनावट अण्डाकार है , इसे पिण्ड भी कहते हैं क्योंकि शरीर( पिण्ड ) में एक ब्रह्मड की रचना कमलों में टी . वी . की तरह देखी जाती है) में एक मानसरोवर या धर्मराय (न्यायधीश) का भी लोक है या एक गुप्त स्थान पर पूर्ण परमात्मा अन्य रूप धारण करके रहता है जैसे प्रत्येक देश का राजदूत मन होता है । वहाँ पर कोई नहीं जा सकता । वहाँ पर वे आत्माएं रहती हैं जिनकी सत्यलोक की भक्ति अधूरी रहती है । जब भक्ति युग आता है तो उस समय परमेश्वर कबीर जी अपना प्रतिनिधी पूर्ण संत सतगुरु भेजते हैं । इन पुण्यात्माओं को पृथ्वी पर उस समय मानव शरीर प्राप्त होता है क्या ये शीघ्र ही सत भक्ति पर लग जाते हैं तथा  सतगुरु से दीक्षा प्राप्त करके पूर्ण मोक्ष प्राप्त कर जाते हैं । उस स्थान पर रहने वाले हंस आत्माओं की निजी भक्ति कमाई खर्च नहीं होती । परमात्मा के भण्डार से सर्व सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं । ब्रह्म (काल ) के उपासकों की भक्ति कमाई स्वर्ग -महा स्वर्ग में समाप्त हो जाती है क्योंकि इस काल लोक( ब्रह्म लोक) तथा परब्रह्म लोक में प्राणियों को अपना किया कर्मफल ही मिलता है । क्षर पुरुष( ब्रह्म ) ने अपने 20 ब्रह्मण्डो को चार महाब्रह्मण्डों में विभाजित किया हैं । एक महाब्रह्मण्ड में पाँच ब्रह्मण्डों का समूह बनाया है तथा चारों ओर से अण्डाकार गोलाई ( परिधि ) में रोका है तथा चारों महा ब्रह्मण्डों को भी फिर अण्डाकार गोलाई ( परिधि) में रोका है । इक्कीसवें ब्रह्मण्ड की रचना एक महा ब्रह्मण्ड जितना स्थान लेकर की है । इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में प्रवेश होते ही तीन रास्ते बनाए है । इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में भी बांई तरफ  नकली सतलोक , नकली अलख लोक , नकली अगम लोक , नकली अनामी लोक की रचना प्राणियों को धोखे में रखने  के लिए आदि माया (दुर्गा) से करवाई है तथा दांई तरफ बारह सर्व श्रेष्ठ ब्रह्म साधकों (भक्तों ) को रखता है । फिर प्रत्येक युग में उन्हें अपने संदेश वाहक ( सन्त सतगुरु) बनाकर पृथ्वी पर भेजता है , जो शास्त्र विधि रहित साधना व ज्ञान बताते हैं तथा स्वयं भी भक्तिहीन हो जाते हैं तथा अनुयाइयों को भी काल जाल में फंसा जाते हैं । फिर वे गुरु जी तथा अनुयाई दोनों ही नरक में जाते हैं । फिर सामने एक ताला ( कुलुफ ) लगा रखा है । वह रास्ता काल ( ब्रह्म ) के निज लोक में जाता है । जहाँ पर यह ब्रह्म ( काल ) अपने वारतविक मानव सदृश काल रूप में रहता है । इसी स्थान पर एक पत्थर की टुकड़ी तवे के आकार की ( चपाती पकाने की लोहे की गोल प्लेट सी होती है ) स्वतः गर्म रहती है । जिस पर एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों के सूक्ष्म शरीर को भूनकर उनमें से गंदगी निकाल कर खाता है । उस समय सर्व प्राणी बहुत पीड़ा अनुभव करते हैं तथा हाहाकार मच जाती है । फिर कुछ समय उपरान्त वे बेहोश हो जाते हैं । जीव मरता नहीं । फिर धर्मराय के लोक में जाकर कर्माधार से अन्य जन्म प्राप्त करते हैं तथा जन्म - मृत्यु का चक्कर बना रहता है । उपरोक्त सामने लगा ताला ब्रह्म ( काल ) केवल अपने आहार वाले प्राणियों के लिए कुछ क्षण के लिए खोलता है । पूर्ण परमात्मा के सत्यनाम व सारनाम से यह ताला स्वयं खुल जाता है । ऐसे काल का जाल पूर्ण परमात्मा कविर्देव ( कबीर साहेब ) ने  स्वयं ही अपने निजी भक्त धर्मदास जी को समझाया ।


विस्तृत विवरण  के लिए कृप्या अगले आर्टिकल का इंतजार करें !

मैं मिलूंगा आपसे ऐसी ही रोचक जानकारी के साथ ।
     
धन्यवाद !

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