srshti rachana
नमस्ते मैं तरूण , पिछले आर्टिकल में मैंने आप से वास्तविक भगवान के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे थे।उन में से पहले प्रश्न का उत्तर अधूरा रह गया था मै आज उसे पूरा करने के लिए यह ब्लॉग लिख रहा हूं।
" विष्णु का अपने पिता ( काल / ब्रह्म ) की प्राप्ति के लिए प्रस्थान व माता का आशीर्वाद पाना "
इसके बाद विष्णु से प्रकृति ने कहा कि पुत्र तू भी अपने पिता का पता लगा ले ।तब विष्णु अपने पिता जी काल ( ब्रह्म ) का पता करते - करते पाताल लोक में चल जहाँ शेषनाग था । उसने विष्ण को अपनी सीमा में प्रविष्ट होते देख कर क्रोधित हो कर जहर भरा फुंकारा मारा । उसके विष के प्रभाव से विष्णु जी का रंग सांवला हो गया ,जैसे स्प्रे पेंट हो जाता है । तब विष्णु ने चाहा कि इस नाग को मजा चखाना चाहिए । तब ज्योति निरंजन ( काल ) ने देखा कि अब विष्णु को शांत करना चाहिए। तब आकाशवाणी हुई कि विष्णु अब तू अपनी माता जी के पास जा और सत्य -सत्य सारा विवरण बता देना तथा जो कष्ट आपको शेषनाग से हुआ है , इसका प्रतिशोध द्वापर युग में लेना । द्वापर युग में आप ( विष्णु ) तो कृष्ण अवतार धारण करोगे और कालीदह में कालिन्द्री नामक नाग , शेष नाग का अवतार होगा । ऊंच होई के नीच सतावै , ताकर ओएल ( बदला ) मोही सों पावै । जो जीव देई पीर पुनी काँहु , हम पुनि ओएल दिवावें ताहूँ । तब विष्ण जी माता जी के पास आए तथा सत्य - सत्य कह दिया कि मुझे पिता दर्शन नहीं हुए । इस बात से माता ( प्रकृति ) बहुत प्रसन्न हुई और कहा कि पुत्र तू सत्यवादी है । अब मैं अपनी शक्ति से आपको तेरे पिता से मिलाती हूँ तथा तेरे मन संशय खत्म करती हूँ । '
कबीर देख. पुत्र तोहि पिता भीटाऊँ , तौरे मन का धोखा मिटाऊँ । ' मन स्वरूप कर्ता कह जानों , मन ते दूजा और न मानो । ' स्वर्ग पाताल दौर मन केरा मन अस्थीर मन अहै अनेरा । ' निरंकार मन ही को कहिए, मन की आस निश दिन रहिए। देख हूं पलटि सुन्य मह ज्योति , जहां पर झिलमिल झालर होती ॥
इस प्रकार माता ( अष्टंगी , प्रकृति ) ने विष्णु से कहा कि मन ही जग का कर्ता है , यही ज्योति निरंजन है । ध्यान में जो एक हजार ज्योतियों नजर आती है वहीं उसका रूप है । जो शंख , घण्टा आदि का बाजा सुना , यह महास्वर्ग में निरंजन का ही बज रहा है । तब माता ( अष्टंगी , प्रकृति ) ने कहा कि हे पुत्र तुम सब देवों के सरताज हो और तेरी हर कामना व कार्य मैं पूर्ण करूंगी । तेरी पूजा सर्व जग में होगी । आपने मुझे सच - सच बताया है । काल के इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों के प्राणियों की विशेष आदत है कि अपनी व्यर्थ महिमा बनाता है । जैसे दुर्गा जी श्री विष्णु जी को कह रही है कि तेरी पूजा जग में होगी । मैंने तुझे तेरे पिता के दर्शन करा दिए । दुर्गा ने केवल प्रकाश दिखा कर श्री विष्णु जी को बहका दिया । श्री विष्णु जी भी प्रभु की यही स्थिति अपने अनुयाइयो को समझाने लगे कि परमात्मा का केवल प्रकाश दिखाई देता है । परमात्मा निराकार है । इसके बाद आदि भवानी रूद्र ( महेश जी ) के पास गई तथा कहा कि महेश तू भी कर ले अपने पिता की खोज तेरे दोनों भाइयों को तो तुम्हारे पिता के दर्शन नहीं हुए । उनको जो देना था वह प्रदान कर दिया है अब आप मॉगो जो माँगना है । तब महेश ने कहा कि हे जननी ! मेरे दोनों बड़े भाईयों को पिता के दर्शन नहीं हुए फिर प्रयत्न करना व्यर्थ है । कृपा मुझे ऐसा वर दो कि मैं अमर ( मृत्युंजय ) हो जाऊँ । तब माता ने कहा कि यह मैं नहीं कर सकती । हाँ युक्ति बता सकती हूँ , जिससे तेरी आयु सबसे लम्बी बनी रहेगी।
विधि योग समाधि है ( इसलिए महादेव जी ज्यादातर समाधि में ही रहते है । इस प्रकार माता ( अष्टंगी , प्रकृति ) ने तीनों पुत्रों को विभाग बांट दिए : भगवान ब्रह्मा जी को काल लोक में लख चौरासी के चोले ( शरीर ) रचने ( बनाने ) का अर्थात् रजोगुण प्रभावित करके संतान उत्पत्ति के लिए विवश करके जीव उत्पत्ति कराने का विभाग प्रदान किया। भगवान विष्णु जी को इन जीवों के पालन पोषण ( कर्मानुसार ) करने , तथा मोह- ममता उत्पन्न करके स्थिति बनाए रखने का विभाग दिया । भगवान शिव शंकर महादेव को संहार करने का विभाग प्रदान किया । क्योंकि इनके पिता निरंजन को एक लाख मानव शरीर धारी जीव प्रतिदिन खाने पड़ते है। यहां पर मन में एक प्रश्न उत्पन्न होगा कि ब्रह्मा , विष्णु तथा शंकर जी से उत्पत्ति स्थिति और संहार कैसे होता है । ये तोनों अपने - २ लोक में रहते हैं । जैसे आजकल संचार प्रणाली को चलाने के लिए उपग्रहों को ऊपर आसमान में छोड़ा जाता है औट वे नीच पृथ्वी पर संचार प्रणाली को चलाते हैं । ठीक इसी प्रकार ये तीनों देव जहाँ भी रहते हैं इनके शरीर से निकलने वाले सूक्ष्म गुण की तरंगें तीनों लोकों में अपने आप हर प्राणी पर प्रभाव बनाए रहती है ।उपरोक्त विवरण एक ब्रह्मण्ड में ब्रह्म ( काल ) की रचना का है । ऐसे - ऐसे क्षर पुरुष ( काल ) के इक्कीस ब्रह्मण्ड हैं । परन्तु क्षर पुरुष ( काल ) स्वयं व्यक्त अर्थात् वास्तविक शरीर रूप में सबके सामने नहीं आता । उसी को प्राप्त करने के लिए तीनों देवों ( ब्रह्मा जी , विष्ण जी , शिव जी ) को वेदों में वर्णित विधि अनुसार भरसक साधना करने पर भी ब्रह्म ( काल )के दर्शन नहीं हुए । बाद में ऋषियों ने वेदों को पढ़ा । उसमें लिखा है कि ' अग्नेः तनूर् असि ' ( पवित्र यजुर्वेद अ . 1 मंत्र 15 ) परमेश्वर सशरीर है तथा पवित्र यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र में लिखा है कि ' अग्नेः तनूर् असि विष्णवे त्वा सोमस्य तनूर् असि' । इस मंत्र में दो बार वेद गवाही दे रहा है कि सर्वव्यापक , सर्वपालन कर्ता सतपुरुष सशरीर है । पवित्र यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 8 में कहा है कि ( कविर् मनिषी ) जिस परमेश्वर की सर्व प्राणियों को चाह है , वह कविर् अर्थात् कबीर है । उसका शरीर बिना नाड़ी ( अस्नाविरम् ) का है , ( शुक्रम ) वीर्य से बनी पाँच तत्व से बनी भौतिक ( अकायम्) काया रहित है । वह सर्व का मालिक सर्वोपरि सत्यलोक में विराजमान है , उस परमेश्वर का तेजपुंज का ( स्व र्ज्योति ) स्वयं प्रकाशित शरीर है जो शब्द रूप अर्थात् अविनाशी है । वही कविर्देव ( कबीर परमेश्वर ) है जो सर्व ब्रह्मण्डों की रचना करने वाला ( व्यदधाता ) सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार ( स्वयम्भूः ) स्वयं प्रकट होने वाला ( यथा तथ्य अर्थान्) वास्तव में ( शाश्वत् ) अविनाशी है ( गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में भी प्रमाण है । भावार्थ है कि पूर्ण ब्रह्म का शरीर का नाम कबीर ( कविर देव )है । उस परमेश्वर का शरीर नूर तत्व से बना है । परमात्मा का शरीर अति सूक्ष्म है जो उस साधक को दिखाई देता है जिसकी दिव्य दृष्टि खुल चुकी है ।
इस प्रकारजीव का भी सुक्ष्म शरीर है जिसके ऊपर पाँच तत्व का खोल ( कवर ) अर्थात् पाँच तत्व की काया चढ़ी होती है जो माता - पिता के संयोग से ( शुक्रम ) वीर्य से बनी है । शरीर त्यागने के पश्चात् भी जीव का सुक्ष्म शरीर साथ रहता है । वह शरीर उसी साधक को दिखाई देता है जिसकी दिव्य दृष्टि खुल चुकी है । इस प्रकार परमात्मा व जीव की स्थिति को समझे । वेदों में ओ३म् नाम के स्मरण का प्रमाण है जो केवल ब्रह्म साधना है । इस उद्देश्य से ओ३म् नाम के जाप को पूर्ण ब्रह्म का मान कर ऋषियों ने भी हजारों वर्ष हठयोग ( समाधि लगा कर ) करके प्रभु प्राप्ति की चेष्टा की , परन्तु प्रभु दर्शन नहीं हए , सिद्धियाँ प्राप्त हो गई । उन्हीं सिद्धी रूपी खिलौनो से खेल कर ऋषिभी जन्म - मृत्यु के चक्र में ही रह गए तथा अपने अनुभव के शास्त्रों में परमात्मा को निराकार लिख दिया । ब्रह्म ( काल ) ने कसम खाई है कि मैं अपने वास्तविक रूप में किसी को दर्शन नहीं दूंगा । मुझे अव्यक्त जाना करेंगे ( अव्यक्त का भावार्थ है कि कोई आकार में है परन्तु व्यक्तिगत रूप से स्थूल रूप में दर्शन नहीं देता । जैसे आकाश में बादल छा जाने पर दिन के समय सूर्य अदृश हो जाता है । वह दृश्यमान नहीं है , परन्तु वास्तव में बादलों के पार ज्यों का त्यों है , इस अवस्था को अव्यक्त कहते हैं ।)| ( प्रमाण के लिए गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25, अध्याय 11 श्लोक 48 तथा 32 )
विस्तृत विवरण के लिए कृप्या अगले आर्टिकल का इंतजार करें !
मैं मिलूंगा आपसे ऐसी ही रोचक जानकारी के साथ ।
धन्यवाद !
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