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नमस्ते मैं तरूण , पिछले आर्टिकल में मैंने आप से वास्तविक भगवान के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे थे।उन में से पहले प्रश्न का उत्तर अधूरा रह गया था मै आज उसे पूरा करने के लिए यह ब्लॉग लिख रहा हूं।

" पवित्र ऋग्वेद में सृष्टी रचना का प्रमाण "
 मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 1
सहस्रशीर्षा पुरूषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतों वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् । । 1 । ।
 सहस्रशिर्षा - पुरूषः - सहस्राक्षः - सहस्रपात् - स - भूमिम् - विश्वतः - वृत्वा - अत्यातिष्ठत् - दशंगुलम् ।
 अनुवाद : - ( पुरूषः ) विराट रूप काल भगवान अर्थात् क्षर पुरूष ( सहस्रशिर्षा ) हजार  सिरों वाला (सहस्राक्षः ) हजार आँखों वाला ( सहस्रपात् )हजार पैरों वाला है ( स ) वह काल ( भूमिम् ) पृथ्वी वाले इक्कीस ब्रह्मण्डों को ( विश्वतः ) सब ओर से ( दशंगुलम् ) दसों अंगुलियों से अर्थात् पूर्ण रूप से काबू किए हुए ( वृत्वा ) गोलाकार घेरे में घेर कर ( अत्यातिष्ठत् ) इस से बढ़कर अर्थात् अपने काल लोक में सबसे न्यारा भी इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में ठहरा है अर्थात् रहता है ।
 भावार्थ : - इस मंत्र में विराट ( काल / ब्रह्म ) का वर्णन है । ( गीता अध्याय 10 - 11 में भी इसी काल / ब्रह्म का ऐसा ही वर्णन है अध्याय 11 मंत्र नं . 46 में अर्जुन ने कहा है कि हे सहस्राबाहु अर्थात् हजार भुजा वाले आप अपने चतुर्भुज रूप में दर्शन दीजिए ) जिसके हजारों हाथ , पैर , हजारों आँखे , कान आदि हैं वह विराट रूप काल प्रभु अपने आधीन सर्व प्राणियों को पूर्ण काबू करके अर्थात 20 ब्रह्मण्डों को गोलाकार परिधि में रोककर स्वयं इनसे ऊपर ( अलग ) इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बैठा है ।

 मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 2 .
पुरूष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम |
 उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति । । 2 । ।
 पुरूष - एव - इदम - सर्वम - यत् - भूतम् - यत् - च - भाव्यम् - उत - अमृतत्वस्य इशानः - यत् - अन्नेन - अतिरोहति । अनुवाद : - ( एव ) इसी प्रकार कुछ सही तौर पर ( पुरूष ) भगवान है वह अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म है ( च ) और ( इदम् ) यह ( यत् ) जो ( भूतम् ) उत्पन्न हुआ है ( यत् ) जो ( भाव्यम् ) भविष्य में होगा ( सर्वम्) सब ( यत् ) प्रयत्न से अर्थात् मेहनत द्वारा ( अन्नेन ) अन्न से( अतिरोहति ) विकसित होता है । यह अक्षर पुरूष भी ( उत ) सन्देह युक्त ( अमृतत्वस्य ) मोक्ष का ( इशानः ) स्वामी है अर्थात् भगवान तो अक्षर पुरूष भी कुछ सही है परन्तु पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है । भावार्थ : - इस मंत्र में परब्रह्म ( अक्षर पुरुष ) का विवरण है जो कुछ भगवान वाले लक्षणों से युक्त है , परन्तु इसकी भक्ति से भी पूर्ण मोक्ष नहीं है , इसलिए इसे संदेहयुक्त मुक्ति दाता कहा है । इसे कुछ प्रभु के गुणों युक्त इसलिए कहा है कि यह काल की तरह तप्तशिला पर भून कर नहीं खाता । परन्तु इस परब्रह्म के लोक में भी प्राणियों को परिश्रम करके कर्माधार पर ही फल प्राप्त होता है तथा अन्न से ही सर्व प्राणियों के शरीर विकसित होते हैं , जन्म तथा मृत्यु का समय भले ही काल ( क्षर पुरुष ) से अधिक है , परन्तु फिर भी उत्पत्ति प्रलय तथा चौरासी लाख योनियों में यातना बनी रहती है ।
 मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 3
 एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरूषः ।
 पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि । । 3
 एतावान - अस्य - महिमा - अतः - ज्यायान् - च - पुरूषः - पादः - अस्य - विश्वा - भूतानि - त्रि - पाद् - अस्य - अमृतम् - दिवि
अनुवाद - ( अस्य ) इस अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म की तो ( एतावान् ) इतनी ही ( महिमा ) प्रभुता है । ( च ) तथा ( पुरुषः ) वह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर तो ( अतः) इससे भी ( ज्यायान् ) बड़ा है ( विश्वा ) समस्त ( भूतानि ) क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरूष तथा इनके लोकों में तथा सत्यलोक तथा इन लोकों में जितने भी प्राणी हैं ( अस्य ) इस पूर्ण परमात्मा परम अक्षर पुरुष का ( पादः ) एक पैर है अर्थात् एक अंश मात्र है । ( अस्य )इस परमेश्वर के ( त्रि ) तीन ( दिवि ) दिव्य लोक जैसे सत्यलोक - अलख लोक - अगम लोक ( अमृतम ) अविनाशी ( पाद ) दूसरा पैर है अर्थात् जो भी सर्व ब्रह्मण्डों में उत्पन्न है वह सत्यपुरुष पूर्ण परमात्मा का ही अंश या अंग है ।
भावार्थ :  इस ऊपर के मंत्र 2 में वर्णित अक्षर पुरुष ( परब्रह्म ) की तो इतनी ही महिमा है तथा वह पूर्ण पुरुष कविर्देव तो इससे भी बड़ा है अर्थात सर्वशक्तिमान है तथा सर्व ब्रह्माण्ड उसी के अंश मात्र पर ठहरे हैं । इस मंत्र में तीन लोकों का वर्णन इसलिए है क्योंकि चौथा अनामी ( अनामय ) लोक अन्य रचना से पहले का है । यही तीन प्रभुओं ( क्षर पुरूप - अ क्षर पुरुष तथा इन दोनों से अन्य परम अक्षर पुरूष ) का विवरण श्रीमदभगवत गीता अध्याय 15 श्लोक संख्या 16 - 17 में है ( इसी का प्रमाण आदरणीय गरीबदास साहेब जी कहते हैं कि : - गरीब , जाके अर्ध रूम पर सकल पसारा , ऐसा पूर्ण ब्रह्म हमारा । ।
 गरीब , अनन्त कोटि ब्रह्मण्ड का , एक रति नहीं भार | सतगुरु पुरुष कबीर हैं कुल के सजनहार । ।
 इसी का प्रमाण आदरणीय दादू साहेब जी कह रहे हैं कि : जिन मोकुं निज नाम दिया , सोई सतगुरु हमार । दादू दूसरा कोए नहीं , कबीर सृजनहार । ।
इसी का प्रमाण आदरणीय नानक साहेब जी देते हैं कि :यक अर्ज गुफतम पेश तो दर कून करतार । हक्का कबीर करीम तू , बेएब परवरदिगार । ।
 ( श्री गुरु ग्रन्थ साहेब , पृष्ठ नं . 721 , महला 1 , राग तिलंग )
 कुन करतार का अर्थ होता है सर्व का रचनहार , अर्थात् शब्द शक्ति से रचना  करने वाला शब्द स्वरूपी प्रभु , हक्का कबीर का अर्थ है सत् कबीर , करीम का अर्थ दयालु , परवरदिगार का अर्थ परमात्मा है । )


विस्तृत विवरण  के लिए कृप्या अगले आर्टिकल का इंतजार करें !
मैं मिलूंगा आपसे ऐसी ही रोचक जानकारी के साथ ।
     
धन्यवाद !

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