srshti rachana
नमस्ते मैं तरूण , पिछले आर्टिकल में मैंने आप से वास्तविक भगवान के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे थे।उन में से पहले प्रश्न का उत्तर अधूरा रह गया था मै आज उसे पूरा करने के लिए यह ब्लॉग लिख रहा हूं।
मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः।
ततो विष्व ङ्व्यक्रामत्साशनानशने अभि । । 4 । ।
त्रि - पाद - ऊर्ध्व : - उदैत् - पुरूषः - पादः - अस्य - इह - अभवत् - पून : - ततः - विश्वङ व्यक्रामत् - सः - अशनानशने - अभि .
अनुवाद : - ( पुरूषः ) यह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् अविनाशी परमात्मा ( ऊर्ध्व: ) ऊपर (त्रि) तीन लोक जैसे सत्यलोक - अलख लोक - अगम लोक रूप ( पाद ) पैर अर्थात् ऊपर के हिस्से में ( उदैत् ) प्रकट होता है अर्थात् विराजमान है ( अस्य ) इसी परमेश्वर पूर्ण ब्रह्म का (पादः ) एक पैर अर्थात् एक हिस्सा जगत रूप ( पुनर् ) फिर ( इह ) यहाँ ( अभवत् ) प्रकट होता है (ततः ) इसलिए ( सः ) वह अविनाशी पूर्ण परमात्मा ( अशनानशने ) खाने वाले काल अर्थात् क्षर परूष व न खाने वाले परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष के भी ( अभि ) ऊपर ( विश्वङ् )सर्वत्र ( व्यक्रामत् ) व्याप्त है अर्थात् उसकी प्रभुता सर्व ब्रह्माण्डों व सर्व प्रभुओं पर है वह कुल का मालिक है । जिसने अपनी शक्ति को सर्व के ऊपर फैलाया है ।
भावार्थ : - यही सर्व सृष्टी रचन हार प्रभु अपनी रचना के ऊपर के हिस्से में तीनों स्थानों ( सतलोक , अलखलोक , अगमलोक ) में तीन रूप में स्वयं प्रकट होता है अर्थात् स्वयं ही विराजमान है । यहाँ अनामी लोक का वर्णन इसलिए नहीं किया क्योंकि अनामी लोक में कोई रचना नहीं है तथा अकह ( अनामय ) लोक शेष रचना से पूर्व का है फिर कहा है कि उसी परमात्मा के सत्यलोक से बिछुड़ कर नीचे के ब्रह्म व परब्रह्म के लोक उत्पन्न होते हैं और वह पूर्ण परमात्मा खाने वाले ब्रह्म अर्थात् काल से ( क्योंकि ब्रह्मा / काल विराट शाप वश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को खाता है ) तथा न खाने वाले परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष से ( परब्रह्म प्राणियों को खाता नहीं , परन्तु जन्म - मृत्यु , कर्मदण्ड ज्यों का त्यों बना रहता है ) भी ऊपर सर्वत्र व्याप्त है अर्थात् इस पूर्ण परमात्मा की प्रभुता सर्व के ऊपर है , कबीर परमेश्वर ही कुल का मालिक है । जिसने अपनी शक्ति को सर्व के ऊपर फैलाया जैसे सूर्य अपने प्रकाश को सर्व के ऊपर फैला कर प्रभावित करता है , ऐसे पूर्ण परमात्मा ने अपनी शक्ति रूपी रेंज ( क्षमता ) को सर्व ब्रह्मण्डों को नियन्त्रित रखने के लिए छोड़ा हुआ है जैसे मोबाईल फोन का टावर एक देशिय होते हुए अपनी शक्ति अर्थात् मोबाइल फोन की रेंज ( क्षमता ) चहुं ओर फैलाए रहता है । इसी प्रकार पूर्ण प्रभू ने अपनी निराकार शक्ति सर्व व्यापक की है जिससे पूर्ण परमात्मा सर्व ब्रह्मण्डों को एक स्थान पर बैठ कर नियन्त्रित रखता है । इसी का प्रमाण आदरणीय गरीबदास जी महाराज दे रहे हैं ( अमृतवाणी राग कल्याण ) तीन चरण चिन्तामणी साहेब , शेष बदन पर छाए । माता , पिता , कुल न बन्धु , ना किन्हें जननी जाये । ।
मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 5
तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पुरूषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः । । 5 । ।
तस्मात् - विराट् - अजायत - विराजः - अधि - पुरूषः - स - जात: - अत्यरिच्यत - पश्चात् - भूमिम् - अथः - पुरः ।
अनुवाद : - ( तस्मात् ) उसके पश्चात् उस परमेश्वर सत्यपुरूष की शब्द शक्ति से ( विराट् ) विराट अर्थात् ब्रह्म , जिसे क्षर पुरूष व काल भी कहते हैं ( अजायत ) उत्पन्न हुआ है ( पश्चात् ) इसके बाद ( विराजः ) विराट पुरूष अर्थात् काल भगवान से ( अधि ) बड़े ( पुरूषः ) परमेश्वर ने ( भूमिम् ) पृथ्वी वाले लोक , काल ब्रह्म तथा परब्रह्म के लोक को ( अत्यरिच्यत ) अच्छी तरह रचा ( अथः ) फिर ( पुरः ) अन्य छोटे - छोटे लोक ( स ) उस पूर्ण परमेश्वर ने ही ( जातः ) उत्पन्न किया अर्थात् स्थापित किया ।
भावार्थ : - उपरोक्त मंत्र 4 में वर्णित तीनों लोकों ( अगमलोक , अलख लोक तथा सतलोक ) की रचना के पश्चात पूर्ण परमात्मा ने ज्योति निरंजन ( ब्रह्म ) की उत्पत्ति की अर्थात् उसी सर्व शक्तिमान परमात्मा पूर्ण ब्रह्म कविर्देव ( कबीर प्रभु ) से ही विराट अर्थात् ब्रह्म ( काल ) की उत्पत्ति हुई । यही प्रमाण गीता अध्याय 3 मन्त्र 15 में है कि अक्षर पुरूष अर्थात् अविनाशी प्रभु से ब्रह्म उत्पन्न हुआ यही प्रमाण अर्थववेद काण्ड 4 अनुवाक 1 सुक्त 3 में है कि पूर्ण ब्रह्म से ब्रह्म की उत्पत्ति हुई उसी पूर्ण ब्रह्म ने ( भूमिम ) भूमि आदि छोटे - बड़े सर्व लोकों की रचना की । वह पूर्णब्रह्म इस विराट भगवान अर्थात् ब्रह्म से भी बड़ा है अर्थात् इसका भी मालिक है । मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 15
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरूषं पशुम । । 1511
सप्त - अस्य - आसन् - परिधयः - त्रिसप्त - समिधः - कृताः - देवा - यत् - यज्ञम् - तन्वानाः - अबध्नन् - पुरुषम् - पशुम् ।
अनुवाद - ( सप्त ) सात संख ब्रह्मण्ड तो परब्रह्म के तथा ( त्रिसप्त ) इक्कीस ब्रह्मण्ड काल ब्रह्म के ( समिधः ) कर्मदण्ड दु:ख रूपी आग से दु:खी ( कृता: ) करने वाले ( परिधयः ) गोलाकार घेरा रुप सीमा में ( आसन् ) विद्यमान है ( यत् ) जो ( पुरुषम् ) पूर्ण परमात्मा की ( यज्ञम् ) विधिवत् धार्मिक कर्म अर्थात पूजा करता है ( पशुम् ) बलि के पशुरूपी काल के जाल में कर्म बन्धन में बंधे ( देवा ) भक्तात्माओं को ( तन्वाना: ) काल के द्वारा रचे अर्थात् फैलाये पाप कर्म बंधन जाल से ( अवध्नन् ) बन्धन रहित करता है , अर्थात् बन्दी छुड़ाने वाला बन्दी छोड़ है ।
भावार्थ : - सात संख ब्रह्मण्ड परब्रह्म के तथा इक्कीस ब्रह्मण्ड ब्रह्म के हैं जिन में गोलाकार सीमा में बंद पाप कर्मों की आग में जल रहे प्राणियों को वास्तविक पूजा विधि बता कर सही उपासना करवाता है जिस कारण से बलि दिए जाने वाले पशु की तरह जन्म - मृत्यु के काल ( ब्रह्म ) के खाने के लिए तप्त शिला के कष्ट से पीडित भक्तात्माओं को काल के कर्म बन्धन के फैलाए जाल को तोड़कर बन्धन रहित करता है अर्थात् बंधन छुड़वाने वाला बन्दी छोड़ है । इसी का प्रमाण पवित्र यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 में है कि कविरंघारिसि ( कविर् ) कबिर परमेश्वर ( अंघ ) पाप का ( अरि ) शत्रु ( असि ) है अर्थात् पाप विनाशक कबीर है । बम्भारिसि ( बम्भारि ) बन्धन का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर ( असि ) है ।
विस्तृत विवरण के लिए कृप्या अगले आर्टिकल का इंतजार करें !
मैं मिलूंगा आपसे ऐसी ही रोचक जानकारी के साथ ।
धन्यवाद !
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