srshti rachana
नमस्ते मैं तरूण , पिछले आर्टिकल में मैंने आप से वास्तविक भगवान के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे थे।उन में से पहले प्रश्न का उत्तर अधूरा रह गया था मै आज उसे पूरा करने के लिए यह ब्लॉग लिख रहा हूं।
मण्डल10 सुक्त 90 मंत्र 16
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः । । 6 । ।
यज्ञेन - यज्ञम् - अ - यजन्त - देवाः - तानि - धर्माणि - प्रथमानि - आसन् - ते- ह - नाकम् - महिमानः - सचन्त - यत्र - पूर्वे - साध्याः सन्ति देवाः ।
अनुवाद- जो ( देवाः ) निर्विकार देव स्वरूप भक्तात्माएं ( अयज्ञम् ) अधूरी गलत धार्मिक पूजा के स्थान पर ( यज्ञेन ) सत्य भक्ति धार्मिक कर्म के आधार पर ( अयजन्त ) पूजा करते हैं ( तानि ) वे ( धर्माणि ) धार्मिक शक्ति सम्पन्न ( प्रथमानि ) मुख्य अर्थात् उत्तम ( आसन् ) हैं ( ते ह ) वे ही वास्तव में ( महिमानः ) महान भक्ति शक्ति युक्त होकर ( साध्याः ) सफल भक्त जन ( नाकम् ) पूर्ण सुखदायक परमेश्वर को ( सचन्त ) भक्ति निमित कारण अर्थात् सत्भक्ति की कमाई से प्राप्त होते हैं , वे वहाँ चले जाते हैं । ( यत्र ) जहाँ पर ( पूर्वे ) पहले वाली सृष्टी के ( देवाः ) पापरहित देव स्वरूप भक्त आत्माएं ( सन्ति ) रहती हैं ।
भावार्थ : - जो निर्विकार ( जिन्होने मांस , शराब , तम्बाकू सेवन करना त्याग दिया है तथा अन्य बुराईयों से रहित है वे ) देव स्वरूप भक्त आत्माएं शास्त्र विधि रहित पूजा को त्याग कर शास्त्रानुकूल साधना करते हैं वे भक्ति की कमाई से धनी होकर काल के ऋण से मुक्त होकर अपनी सत्य भक्ति की कमाई के कारण उस सर्व सुखदाई परमात्मा को प्राप्त करते हैं अर्थात सत्यलोक में चले जाते हैं जहाँ पर सर्व प्रथम रची सृष्टी के देव स्वरूप अर्थात् पाप रहित हंस आत्माएं रहती हैं । जैसे कुछ आत्माएं तो काल ( ब्रह्म ) के जाल में फंस कर यहाँ आ गई , कुछ परब्रह्म के साथ सात संख ब्रह्मण्डों में आ गई , फिर भी असंख्य आत्माएं जिनका विश्वास पूर्ण परमात्मा में अटल रहा , जो पतिव्रता पद से नहीं गिरी वे वहीं रह गई , इसलिए यहाँ वही वर्णन पवित्र वेदों ने भी सत्य बताया है । यही प्रमाण गीता अध्याय 8 के श्लोक संख्या 8 से 10 में वर्णन है कि जो साधक पूर्ण परमात्मा की सतसाधना शास्त्रविधी अनुसार करता है वह भक्ति की कमाई के बल से उस पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होता है अर्थात् उसके पास चला जाता है । इससे सिद्ध हुआ कि तीन प्रभु है ब्रह्म - परब्रहा - पूर्णब्रह्म । इन्हीं को 1 . ब्रह्म - ईश - क्षर पुरुष 2 . परब्रह्म - अक्षर पुरुष / अक्षर ब्रह्म ईश्वर तथा 3 . पूर्ण ब्रह्म - परम अक्षर ब्रह्म - परमेश्वर · सतपुरुष आदि पर्यायवाची शब्दों से जाना जाता है । यही प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17 से 20 में स्पष्ट है कि पूर्ण परमात्मा कविर्देव ( कबीर परमेश्वर ) शिशु रूप धारण करके प्रकट होता है तथा अपना निर्मल ज्ञान अर्थात् तत्वज्ञान ( कविर्गीर्भिः ) कबीर वाणी के द्वारा अपने अनुयाइयों को बोल - बोल कर वर्णन करता है । वह कविर्देव ( कबीर परमेश्वर ) ब्रह्म ( क्षर पुरुष ) के धाम तथा परब्रह्म ( अक्षर पुरुष ) के धाम से भिन्न जो पूर्ण ब्रह्म ( परम अक्षर पुरुष ) का तीसरा ऋतधाम ( सतलोक ) है , उसमें आकार में विराजमान है । तथा सतलोक से चौथा अनामी लोक है , उसमें भी यही कविर्देव ( कबीर परमेश्वर ) अनामी पुरुष रूप में मनुष्य सदृश आकार में विराजमान है ।
विस्तृत विवरण के लिए कृप्या अगले आर्टिकल का इंतजार करें !
मण्डल10 सुक्त 90 मंत्र 16
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः । । 6 । ।
यज्ञेन - यज्ञम् - अ - यजन्त - देवाः - तानि - धर्माणि - प्रथमानि - आसन् - ते- ह - नाकम् - महिमानः - सचन्त - यत्र - पूर्वे - साध्याः सन्ति देवाः ।
अनुवाद- जो ( देवाः ) निर्विकार देव स्वरूप भक्तात्माएं ( अयज्ञम् ) अधूरी गलत धार्मिक पूजा के स्थान पर ( यज्ञेन ) सत्य भक्ति धार्मिक कर्म के आधार पर ( अयजन्त ) पूजा करते हैं ( तानि ) वे ( धर्माणि ) धार्मिक शक्ति सम्पन्न ( प्रथमानि ) मुख्य अर्थात् उत्तम ( आसन् ) हैं ( ते ह ) वे ही वास्तव में ( महिमानः ) महान भक्ति शक्ति युक्त होकर ( साध्याः ) सफल भक्त जन ( नाकम् ) पूर्ण सुखदायक परमेश्वर को ( सचन्त ) भक्ति निमित कारण अर्थात् सत्भक्ति की कमाई से प्राप्त होते हैं , वे वहाँ चले जाते हैं । ( यत्र ) जहाँ पर ( पूर्वे ) पहले वाली सृष्टी के ( देवाः ) पापरहित देव स्वरूप भक्त आत्माएं ( सन्ति ) रहती हैं ।
भावार्थ : - जो निर्विकार ( जिन्होने मांस , शराब , तम्बाकू सेवन करना त्याग दिया है तथा अन्य बुराईयों से रहित है वे ) देव स्वरूप भक्त आत्माएं शास्त्र विधि रहित पूजा को त्याग कर शास्त्रानुकूल साधना करते हैं वे भक्ति की कमाई से धनी होकर काल के ऋण से मुक्त होकर अपनी सत्य भक्ति की कमाई के कारण उस सर्व सुखदाई परमात्मा को प्राप्त करते हैं अर्थात सत्यलोक में चले जाते हैं जहाँ पर सर्व प्रथम रची सृष्टी के देव स्वरूप अर्थात् पाप रहित हंस आत्माएं रहती हैं । जैसे कुछ आत्माएं तो काल ( ब्रह्म ) के जाल में फंस कर यहाँ आ गई , कुछ परब्रह्म के साथ सात संख ब्रह्मण्डों में आ गई , फिर भी असंख्य आत्माएं जिनका विश्वास पूर्ण परमात्मा में अटल रहा , जो पतिव्रता पद से नहीं गिरी वे वहीं रह गई , इसलिए यहाँ वही वर्णन पवित्र वेदों ने भी सत्य बताया है । यही प्रमाण गीता अध्याय 8 के श्लोक संख्या 8 से 10 में वर्णन है कि जो साधक पूर्ण परमात्मा की सतसाधना शास्त्रविधी अनुसार करता है वह भक्ति की कमाई के बल से उस पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होता है अर्थात् उसके पास चला जाता है । इससे सिद्ध हुआ कि तीन प्रभु है ब्रह्म - परब्रहा - पूर्णब्रह्म । इन्हीं को 1 . ब्रह्म - ईश - क्षर पुरुष 2 . परब्रह्म - अक्षर पुरुष / अक्षर ब्रह्म ईश्वर तथा 3 . पूर्ण ब्रह्म - परम अक्षर ब्रह्म - परमेश्वर · सतपुरुष आदि पर्यायवाची शब्दों से जाना जाता है । यही प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17 से 20 में स्पष्ट है कि पूर्ण परमात्मा कविर्देव ( कबीर परमेश्वर ) शिशु रूप धारण करके प्रकट होता है तथा अपना निर्मल ज्ञान अर्थात् तत्वज्ञान ( कविर्गीर्भिः ) कबीर वाणी के द्वारा अपने अनुयाइयों को बोल - बोल कर वर्णन करता है । वह कविर्देव ( कबीर परमेश्वर ) ब्रह्म ( क्षर पुरुष ) के धाम तथा परब्रह्म ( अक्षर पुरुष ) के धाम से भिन्न जो पूर्ण ब्रह्म ( परम अक्षर पुरुष ) का तीसरा ऋतधाम ( सतलोक ) है , उसमें आकार में विराजमान है । तथा सतलोक से चौथा अनामी लोक है , उसमें भी यही कविर्देव ( कबीर परमेश्वर ) अनामी पुरुष रूप में मनुष्य सदृश आकार में विराजमान है ।
विस्तृत विवरण के लिए कृप्या अगले आर्टिकल का इंतजार करें !
मैं मिलूंगा आपसे ऐसी ही रोचक जानकारी के साथ ।
धन्यवाद !
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