srshti rachana
नमस्ते मैं तरूण , पिछले आर्टिकल में मैंने आप से वास्तविक भगवान के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे थे।उन में से पहले प्रश्न का उत्तर अधूरा रह गया था मै आज उसे पूरा करने के लिए यह ब्लॉग लिख रहा हूं।
“ पवित्र अथर्ववेद में सृष्टी रचना का प्रमाण " काण्ड नं.4 अनुवाक नं .1मंत्र नं.1 :. ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद् वि सीमतः सुरुचो वेन आवः । स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च वि वः । । 1 । ब्रह्म - ज - ज्ञानम् - प्रथमम् - पुरस्तात् विसिमतः – सुरुचः – वेनः - आवः सः- बुध्न्याः – उपमा - अस्य – विष्ठाः – सतः - च - योनिम् - असतः- च – वि वः
अनुवाद : - ( प्रथमम् ) प्राचीन अर्थात् सनातन ( ब्रह्म ) परमात्मा ने ( ज ) प्रकट होक( ज्ञानम्) अपनी सूझ - बूझ से ( पुरस्तात् ) शिखर में अर्थात् सतलोक आदि को ( सरुचः) स्वइच्छा से बड़े चाव से स्वप्रकाशित ( विसिमतः ) सीमा रहित अर्थात् विशाल सीमा वाले भिन्न लोकों को उस ( वेनः ) जुलाहे ने ताने अर्थात् कपड़े की तरह बुनकर ( आवः ) सुरक्षित किया ( च ) तथा ( सः ) वह पूर्ण ब्रह्म ही सर्व रचना करता है ( अस्य ) इसलिए उसी ( बुध्न्याः ) मूल मालिक ने ( योनिम् ) मूलस्थान सत्यलोक की रचना की है ( अस्य ) इस के ( उपमा ) सदृश अर्थात् मिलते जुलते ( सतः ) अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म के लोक कुछ स्थाई ( च ) तथा ( असतः ) क्षर पुरुष के अस्थाई लोक आदि ( वि वः ) आवास स्थान भिन्न ( विष्ठा ) स्थापित किए ।
भावार्थ : - पवित्र वेदों को बोलने वाला ब्रह्म ( काल ) कह रहा है कि सनातन परमेश्वर ने स्वयं अनामय ( अनामी ) लोक से सत्यलोक में प्रकट होकर अपनी सूझ - बूझ से कपड़े की तरह रचना करके ऊपर के सतलोक आदि को सीमा रहित स्वप्रकाशित अजर - अमर अर्थात् अविनाशी ठहराए तथा नीचे के परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्ड तथा ब्रह्म के 21 ब्रह्मण्ड व इनमें छोटी - से छोटी रचना भी उसी परमात्मा नेअस्थाई की है ।
काण्ड नं. 4 अनुवाक नं . 1 मंत्र नं . 2 :
इयं पित्र्या राष्ट्येत्वग्रे प्रथमाय जनुषे भुवनेष्ठाः ।
तस्मा एतं सुरुचं हारमह्यं घर्म श्रीणन्तु प्रथमाय धास्यवे । । 2 । इयम् - पित्र्या – राष्ट्रि - एतु -अग्रे – प्रथमाय -जनुषे- भुवनेष्ठाः तस्मा – एतम् -सुखूचम् - हवारमह्यम् - धर्मम् - श्रीणान्तु - प्रथमाय - धास्यवे ।
अनुवाद : - ( इयम् ) इसी ( पित्र्या ) जगतपिता परमेश्वर ने ( एतु ) इस (अग्रे) सर्वोत्तम् ( प्रथमाय ) सर्व से पहली माया परानन्दनी ( राष्ट्रि ) राजेश्वरी शक्ति अर्थात् पराशक्ति जिसे आकर्षण शक्ति भी कहते हैं , को ( जनुषे ) उत्पन्न करके ( भुवनेष्ठाः ) लोक स्थापना की ( तस्मा ) उसी परमेश्वर ने( सुरुचम्) बड़े चाव के साथ स्वेच्छा से ( एतम् ) इस ( प्रथमाय ) प्रथम उत्पत्ति की शक्ति अर्थात् पराशक्ति के द्वारा ( हारमह्यम् ) एक दूसरे के वियोग को रोकने अर्थात् आकर्षण शक्ति के ( श्रीणान्तु ) गुरूत्व आकर्षण को परमात्मा ने आदेश दिया सदा रहो उस कभी समाप्त न होने वाले ( धर्मम् ) स्वभाव से ( धास्यवे ) धारण करके ताने अर्थात् कपड़े की तरह बुनकर रोके हुए है ।
भावार्थ : - जगतपिता परमेश्वर ने अपनी शब्द शक्ति से राष्ट्री अर्थात् सबसे पहली माया राजेश्वरी उत्पन्न की तथा उसी पराशक्ति के द्वारा एक - दूसरे को आकर्षण शक्ति से रोकने वाले कभी न समाप्त होने वाले गुण से उपरोक्त सर्व ब्रह्मण्डों को स्थापित किया है ।
काण्ड नं . 4 अनुवाक नं . 1 मंत्र नं . 3 : प्र यो जज्ञे विद्वानस्य बन्धुर्विश्वा देवानां जनिमा विवक्ति । ब्रह्म ब्रह्मण उज्जभार मध्यान्नीचैरुच्चैः स्वधा अभि प्र तस्थौ । । 3 । । प्र — यः – जज्ञे विद्वानस्य बन्धुः – विश्वा- देवानाम् -जनिमा विवक्ति - ब्रह्मः- ब्रह्मणः- उज्जभार — मध्यात् - निचैः - उच्चैः स्वधा – अभिः – प्रतस्थौ अनुवाद : - ( प्र ) सर्व प्रथम ( देंवानाम् ) देवताओं व ब्रह्मण्डों की ( जज्ञे ) उत्पति के ज्ञान को ( विद्वानस्य ) जिज्ञासु भक्त का ( यः ) जो ( बन्धुः ) वास्तविक साथी अर्थात् पूर्ण परमात्मा ही अपने निज सेवक को ( जनिमा ) अपने द्वारा सृजन किए हुए को ( विवक्ति ) स्वयं ही ठीक - ठीक विस्तार पूर्वक बताता है कि( ब्रह्मणः ) पूर्ण परमात्मा ने ( मध्यात् ) अपने मध्य से अर्थात् शब्द शक्ति से ( ब्रह्मः ) ब्रह्म - क्षर पुरूष अर्थात् काल को ( उज्जभार ) उत्पन्न करके ( विश्वा ) सारे संसार को अर्थात् सर्व लोकों को ( उच्चैः ) ऊपर सत्यलोक आदि ( निचैः ) नीचे परब्रह्म व ब्रह्म के सर्व ब्रह्मण्ड ( स्वधा ) अपनी धारण करने वाली ( अभिः ) आकर्षण शक्ति से ( प्र तस्थौ ) दोनों को अच्छी प्रकार स्थित किया । भावार्थ : - पूर्ण परमात्मा अपने द्वारा रची सृष्टी का ज्ञान तथा सर्व आत्माओं की उत्पत्ति का ज्ञान अपने निजी दास को स्वयं ही सही बताता है कि पूर्ण परमात्मा ने अपने मध्य अर्थात अपने शरीर से अपनी शब्द शक्ति के द्वारा ब्रह्म ( क्षर पुरुष / काल ) की उत्पत्ति की तथा सर्व ब्रह्मण्डों को ऊपर सतलोक , अलख लोक , अगम लोक , अनामी लोक आदि तथा नीचे परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्ड तथा ब्रह्म के 21 ब्रह्मण्डों को अपनी धारण करने वाली आकर्षण शक्ति से ठहराया हआ है । जैसे पूर्ण परमात्मा कबीर परमेश्वर ( कविर्देव ) ने अपने निजी सेवक अर्थात सखा श्री धर्मदास जी , आदरणीय गरीबदास जी आदि को अपने द्वारा रची सृष्टी का ज्ञान स्वयं ही बताया । उपरोक्त वेद मंत्र भी यही समर्थन कर रहा है ।
विस्तृत विवरण के लिए कृप्या अगले आर्टिकल का इंतजार करें !
मैं मिलूंगा आपसे ऐसी ही रोचक जानकारी के साथ ।
धन्यवाद !
Comments
Post a Comment