srshti rachana

नमस्ते मैं तरूण , पिछले आर्टिकल में मैंने आप से वास्तविक भगवान के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे थे।उन में से पहले प्रश्न का उत्तर अधूरा रह गया था मै आज उसे पूरा करने के लिए यह ब्लॉग लिख रहा हूं।

काण्ड नं . 4 अनुवाक नं . 1 मंत्र नं . 4 सः हि दिवः सः पृथिव्या ऋतस्था मही क्षेमं रोदसी अस्कभायत् । महान् मही अस्कभायद् वि जातो द्यां सद्म पार्थिवं चं रजः । । 4 । । सः - हि - दिवः – स - पृथिव्या - ऋतस्था — मही – क्षेमम् - रोदसी – अकस्मायत् - महान् – मही- अस्कभायद् - विजातः – धाम्- सदम्- पार्थिवम् - च - रजः
अनुवाद - ( स: ) उसी सर्वशक्तिमान परमात्मा ने ( हि ) निःसंदेह ( दिवः ) ऊपर के दिव्य लोक जैसे सत्य लोक , अलख लोक , अगम लोक तथा अनामी अर्थात् अकह लोक अर्थात् दिव्य गुणों युक्त लोकों को ( ऋतस्था ) सत्य स्थिर अर्थात् अजर - अमर रूप से स्थिर किए ( स ) उन्हीं के समान ( पथिव्या ) नीचे के पथ्वी वाले सर्व लोकों जैसे परब्रह्म के सात संख तथा ब्रह्म / काल के इक्कीस ब्रह्मण्ड ( मही ) पृथ्वी तत्व से ( क्षेमम् ) सुरक्षा के साथ ( अस्कभायत् ) ठहराया ( रोदसी ) आकाश तत्व तथा पृथ्वी तत्व दोनों से ऊपर नीचे के ब्रह्माण्डों को (जैसे आकाश एक सुक्ष्म तत्व है , आकाश का गुण शब्द है , पूर्ण परमात्मा ने ऊपर के लोक शब्द रूप रचे जो तेजपुंज के बनाए हैं तथा नीचे के परब्रह्म , ( अक्षर पुरूष ) के सप्त संख ब्रह्मण्ड तथा ब्रह्म / क्षर पुरूष के इक्कीस ब्रह्मण्डों को पृथ्वी तत्व से अस्थाई रचा ) ( महान्) पूर्ण परमात्मा ने ( पार्थिवम् ) पृथ्वी  वाले ( वि ) भिन्न - भिन्न ( धाम् ) लोक ( च ) और ( सदम् ) आवास स्थान ( मही ) पृथ्वी तत्व से ( रजः ) प्रत्येक ब्रह्मण्ड में छोटे - छोटे लोकों की ( जातः ) रचना करके ( अस्कभायत ) स्थिर किया । भावार्थ : - ऊपर के चारों लोक सत्यलोक , अलख लोक , अगम लोक , अनामी लोक , यह तो अजर - अमर स्थाई अर्थात् अविनाशी रचे हैं तथा नीचे के ब्रह्म तथा परब्रह्म के लोकों को अस्थाई रचना करके तथा अन्य छोटे - छोटे लोक भी उसी परमेश्वर ने रच कर स्थिर किए !

 काण्ड नं . 4 अनुवाक नं . 1 मंत्र 5 
 सः बुध्न्यादाष्ट्र जनुषोऽभ्यग्रं बृहस्पतिर्देवता तस्य सम्राट् । अहर्यच्छुक्रं ज्योतिषो जनिष्टाथ द्युमन्तो वि वसन्तु विप्राः । । 5 । ।
 सः - बुध्न्यात् - आष्ट्र - जनुषेः - अभि - अग्रम् - बृहस्पतिः - देवता - तस्य - सम्राट - अहः - यत् - शुक्रम् - ज्योतिषः - जनिष्ट - अथ - द्युमन्तः - वि - वसन्तु - विप्राः ।
 अनुवाद- ( सः ) उसी ( बुध्न्यात् ) मूल मालिक से ( अभि - अग्रम् ) सर्व प्रथम स्थान पर ( आष्ट्र ) अष्टँगी माया - दुर्गा अर्थात् प्रकृति देवी ( जनुषेः ) उत्पन्न हुई क्योंकि नीचे के परब्रह्म व ब्रह्म के लोकों का प्रथम स्थान सतलोक है यह तीसरा धाम भी कहलाता है । ( तस्य ) इस दुर्गा का भी मालिक यही ( सम्राट ) राजाधिराज ( बृहस्पतिः ) सबसे बड़ा पति व जगतगुरु ( देवता ) परमेश्वर है । ( यत्) जिस से ( अहः ) सबका वियोग हुआ ( अथ ) इसके बाद ( ज्योतिषः ) ज्योति रूप निरंजन अर्थात् काल के ( शुक्रम् ) वीर्य अर्थात् बीज शक्ति से ( जनिष्ट ) दुर्गा के उदर से उत्पन्न होकर ( विप्राः ) भक्त आत्माएं ( वि ) अलग से ( द्युमन्तः ) मनुष्य लोक तथा स्वर्ग लोक में ज्योति निरंजन के आदेश से दुर्गा ने कहा ( वसन्तु ) निवास करो , अर्थात् वे निवास करने लगी । भावार्थ : - पूर्ण परमात्मा ने ऊपर के चारों लोकों में से जो नीचे से सबसे प्रथम अर्थात् सत्यलोक में आष्ट्रा अर्थात् अष्टंगी ( प्रकृति देवी / दुर्गा ) की उत्पत्ति की । यही राजाधिराज , जगतगुरु , पूर्ण परमेश्वर ( सतपुरुष ) है जिससे सबका वियोग हुआ है । फिर सर्व प्राणी ज्योति निरंजन ( काल ) के ( वीर्य ) बीज से दुर्गा ( आष्ट्रा ) के गर्भ द्वारा उत्पन्न होकर स्वर्ग लोक व पृथ्वी लोक पर निवास करने लगे ।

विस्तृत विवरण  के लिए कृप्या अगले आर्टिकल का इंतजार करें !

मैं मिलूंगा आपसे ऐसी ही रोचक जानकारी के साथ ।
     
धन्यवाद !

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