srshti rachana
नमस्ते मैं तरूण , पिछले आर्टिकल में मैंने आप से वास्तविक भगवान के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे थे।उन में से पहले प्रश्न का उत्तर अधूरा रह गया था मै आज उसे पूरा करने के लिए यह ब्लॉग लिख रहा हूं।
काण्ड नं . 4 अनुवाक नं . 1 मंत्र 6.
नूनं तदस्य काव्यो हिनोति महो देवस्य पूर्व्यस्य धाम । एष जज्ञे बहुभिः साकमित्था पूर्वे अर्धे विषिते ससन् नु । । 6 । । नूनम् - तत् - अस्य - काव्यः - महः - देवस्य - पूर्व्यस्य - धाम - हिनोति - पूर्वे विषिते - एष - जज्ञे - बहुभिः - साकम् - इत्था - अर्धे - ससन् - नु ।
• अनुवाद - ( नूनम् ) निसंदेह ( तत् ) वह पूर्ण परमेश्वर अर्थात् तत् ब्रह्म ही ( अस्य ) इस ( काव्यः ) भक्त आत्मा जो पूर्ण परमेश्वर की भक्ति विधिवत करता है को वापिस ( मह:) सर्वशक्तिमान ( देवस्य ) परमेश्वर के ( पूर्व्यस्य ) पहले के ( धाम ) लोक में अर्थात् सत्यलोक में ( हिनोति ) भेजता है । ( पूर्वे ) पहले वाले ( विषिते ) विशेष चाहे हुए ( एष ) इस परमेश्वर को व ( जज्ञे ) सृष्टी उत्पति के ज्ञान को जान कर ( बहुभिः ) बहुत आनन्द ( साकम् ) के साथ ( अर्धे ) आधा (ससन् ) सोता हुआ ( इत्था ) विधिवत् इस प्रकार ( नु ) सच्ची आत्मा से स्तुति करता है!
भावार्थ : - वही पूर्ण परमेश्वर सत्य साधना करने वाले साधक को उसी पहले वाले स्थान ( सत्यलोक ) में ले जाता है , जहाँ से बिछुड़ कर आए थे । वहाँ उस वास्तविक सुखदाई प्रभु को प्राप्त करके खुशी से आत्म विभोर होकर मस्ती से स्तुति करता है कि हे परमात्मा असंख्य जन्मों के भूले - भटकों को वास्तविक ठिकाना मिल गया । इसी का प्रमाण पवित्र ऋग्वेद मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 16 में भी है । आदरणीय गरीबदास जी को इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा कविर्देव ( कबीर परमेश्वर) स्वयं सत्यभक्ति प्रदान करके सत्यलोक लेकर गए थे , तब अपनी अमृतवाणी में आदरणीय गरीबदास जी महाराज ने आँखों देखकर कहा : गरीब , अजब नगर में ले गए , हमकुँ सतगुरु आन । झिलके बिम्ब अगाध गति , सुते चादर तान ।।
काण्ड नं . 4 अनुवाक नं . 1 मंत्र 7
योऽथर्वाणं पित्तरं देवबन्धुं बृहस्पतिं नमसाव च गच्छात्। त्वं विश्वेषां जनिता यथासः कविर्देवो न दभायत् स्वधावान् ॥ 7 ॥
यः - अथर्वाणम् - पित्तरम् - देवबन्धुम - बृहस्पतिम् - नमसा - अव - च - गच्छात् - त्वम् -विश्वेषाम् - जनिता - यथा - सः - कविर्देवः - न - दभायत् - स्वधावान्।
अनुवाद : - ( यः ) जो ( अथर्वाणम् ) अचल अर्थात् अविनाशी ( पित्तरम् ) जगत पिता ( देव बन्धुम् ) भक्तों का वास्तविक साथी अर्थात आत्मा का आधार ( बृहस्पतिम् ) जगतगुरु ( च ) तथा ( नमसा ) विनम्र पुजारी अर्थात् विधिवत् साधक को ( अव ) सुरक्षा के साथ ( गच्छात् ) सतलोक गए हुओं को सतलोक ले जाने वाला ( विश्वेषाम् ) सर्व ब्रह्मण्डों की ( जनिता ) रचना करने वाला जगदम्बा अर्थात् माता वाले गुणों से भी युक्त ( न दभायत् ) काल की तरह धोखा न देने वाले ( स्वधावान् ) स्वभाव अर्थात् गुणों वाला ( यथा ) ज्यों का त्यों अर्थात् वैसा ही ( सः ) वह ( त्वम् ) आप ( कविर्देवः ) कविर्देव है अर्थात् भाषा भिन्न इसे कबीर परमेश्वर भी कहते हैं । भावार्थ : - इस मंत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया कि उस परमेश्वर का नाम कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर है , जिसने सर्व रचना की है । ' जो परमेश्वर अचल अर्थात् वास्तव में अविनाशी ( गीता अध्याय 15 श्लोक 16 - 17 में भी प्रमाण है ) जगत् गुरु , आत्माधार , जो पूर्ण मुक्त होकर सत्यलोक गए हैं उनको सतलोक ले जाने वाला , सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार , काल ( ब्रह्म ) की तरह धोखा न देने वाला ज्यों का त्यों वह स्वयं कविर्देव अर्थात् कबीर प्रभु है । यही परमेश्वर सर्व ब्रह्मण्डों व प्राणियों को अपनी शब्द शक्ति से उत्पन्न करने के कारण ( जनिता ) माता भी कहलाता है तथा ( पित्तरम ) पिता तथा ( बन्ध ) भाई भी वास्तव में यही है तथा ( देव ) परमेश्वर भी यही है । इसलिए इसी कविर्देव ( कबीर परमेश्वर ) की स्तुति किया करते हैं । त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धु च सखा त्वमेव , त्वमेव विद्या च द्रविणंम त्वमेव , त्वमेव सर्व मम् देव देव । इसी परमेश्वर की महिमा का पवित्र ऋग्वेद मण्डल नं . 1 सूक्त नं . 24 में विस्तृत विवरण है ।
विस्तृत विवरण के लिए कृप्या अगले आर्टिकल का इंतजार करें !
मैं मिलूंगा आपसे ऐसी ही रोचक जानकारी के साथ ।
धन्यवाद !
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